आज घर से ऑफिस आते वक्त मुझे पतझड़ के पत्तों से साक्षात्कार हुआ, अनुभव अति मर्मस्पर्शी था. उन्हें देख के ऐसा लगा जैसे वो कह रहे हो कि इस वृक्ष ने जबतक मुझे अपने मस्तक से लगाकर रखा, मैंने उसके लिए भरण-पोषण का कार्य किया परन्तु आज इसको मेरी जरुरत खत्म हो गयी और यह मुझे अपने मस्तक से उतार जमीं में गलने को छोड़ दिया हैं. क्या फर्क पड़ता हैं, मैं आज भी इसके लिए स्वयं को गला कर भोजन का स्रोत छोड़ जाती हूँ.
क्या यह बात अपने परिवार के वरिष्ठ सदस्यों पे लागू नहीं होता ???????
उक्त बातों के आलोक में मुझे माँ के द्वारा कही गयी गरुड पुराण की बात याद आ गयी. ममता से वशीभूत एक माँ भगवान के द्वारा प्रदान कीगयी मुक्ति के अवसर को त्याग देती हैं और नाना प्रकार के जिवात्मा रूप धारण कर अपने पुत्र को सेवा प्रदान करती हैं हलाकि पुत्र को इसका भान नहीं होता कि उसके नफरत की केंद्रबिंदु उसकी माँ, मानव शरीर त्यागने के वावजूद उसका ख्याल रख रही हैं.
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